सरहुल पर्व झारखंड, ओड़िशा, बंगाल और छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों के आदिवासी समुदायों द्वारा हर्षोल्लास से मनाया जाता है। यह सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति आदर, सामूहिक एकता और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। इस पर्व में साल वृक्ष के फूलों की पूजा की जाती है, जो धरती के नवजीवन और उर्वरता का प्रतीक है।


सरहुल पर्व का महत्व: प्रकृति की आराधना का पर्व

यह पर्व वसंत ऋतु में चैत्र महीने की तृतीया को मनाया जाता है। इसे प्रकृति के नवजीवन का उत्सव माना जाता है, जब साल वृक्ष पर नए फूल आते हैं। आदिवासी समाज इसे पृथ्वी माता और प्रकृति देवता को समर्पित करता है।

मुख्य विशेषताएँ:
साल वृक्ष की पूजा: साल के फूलों को देवी-देवताओं को अर्पित किया जाता है।
जल, जंगल, ज़मीन का सम्मान: आदिवासी समुदाय इस पर्व को अपने पर्यावरण संरक्षण के संकल्प के रूप में देखते हैं।
सरहुल नृत्य और संगीत: इस अवसर पर पारंपरिक नृत्य और गीत गाए जाते हैं, जो प्रेम, एकता और उत्साह का संचार करते हैं।


सरहुल पर्व: सामाजिक और सांस्कृतिक संदेश

सरहुल सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह समाज को जल, जंगल और ज़मीन से जुड़े रहने का संदेश भी देता है। यह पर्व सामूहिकता, सद्भाव और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने का पर्व है।


आदिवासी समाज की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक

सरहुल पर्व हमें प्रकृति से प्रेम और उसकी सुरक्षा का संदेश देता है। यह आदिवासी समाज की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है, जो आधुनिक युग में भी अपनी मौलिकता और प्राकृतिक जुड़ाव को बनाए रखने की प्रेरणा देता है। ऐसे में, हमें भी इस पर्व से प्रेरणा लेकर पर्यावरण संरक्षण और सामुदायिक एकता को बढ़ावा देना चाहिए।

“धरती के गीत में गूंजता है सरहुल, प्रकृति की गोद में खिलता है नवजीवन!”

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